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ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ - ज़ुल्फ़िकार नक़वी कविता - Darsaal

ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ

ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ

वो बिलाली सौत वो सामेअ' कहाँ

खोजता है अन-गिनत मस्जूद में

क़ुल-हो-अल्लाहो-अहद का साएबाँ

बुत-तराशी चार-सू है जल्वा-गर

दे गई सब की जबीनों को निशाँ

यासियत ने कर्ब के दर वा किए

ख़ुश्क उम्मीदों का गुलशन है यहाँ

तो रहीन-ए-ख़ाना-हा-ए-इज़्तिराब

उठ रहा है तेरे चिलमन से धुआँ

ज़ुल्मतें साया-फ़गन हैं हर तरफ़

बाम-ओ-दर पर रक़्स में नौ-मीदियाँ

रुक ज़रा पढ़ कलमा-ए-ला-तक़नतू

ख़ुद-बख़ुद रौज़न खुलेंगे दरमियाँ

हौसलों के फिर से उग आएँगे पर

अज़्म-ए-मोहकम को बना ले साएबाँ

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