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शुऊर-ओ-फ़िक्र से आगे निकल भी सकता है - ज़ुल्फ़िकार नक़वी कविता - Darsaal

शुऊर-ओ-फ़िक्र से आगे निकल भी सकता है

शुऊर-ओ-फ़िक्र से आगे निकल भी सकता है

मिरा जुनून हवाओं पे चल भी सकता है

मिरे गुमाँ पे उठाओ न उँगलियाँ साहब

गुमाँ यक़ीं में यक़ीनन बदल भी सकता है

पहाड़ अपनी क़दामत पे यूँ न इतराएँ

उभर गया कोई ज़र्रा निगल भी सकता है

मिरे लबों पे जमी बर्फ़ सोच कर छूना

तुम्हारे जिस्म का आहन पिघल भी सकता है

कोई असा भी नहीं और है अकेला तू

अमीर-ए-शहर का अज़दर निगल भी सकता है

हमारे साथ जो चलना है ज़ाद-ए-रह ले लो

कठिन से मोड़ हैं पाँव फिसल भी सकता है

करो न ज़िद कि किसी शहर की तरफ़ जाऊँ

मिरे अज़ीज़ ये दिल है मचल भी सकता है

कर अपने साए से राज़-ओ-नियाज़ की बातें

बहुत उदास है लेकिन बहल भी सकता है

बस इक नज़र जो करम की वो उस तरफ़ फेरे

क़दम बहक जो गया है सँभल भी सकता है

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