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सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं - ज़ुल्फ़िकार नक़वी कविता - Darsaal

सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं

सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं

लगता है पहले जुर्म को दोहरा रहा हूँ मैं

पुर-हौल वादियों का सफ़र है बहुत कठिन

ले जा रहा है शौक़ चला जा रहा हूँ मैं

ख़ाली हैं दोनों हाथ और दामन भी तार तार

क्यूँ एक मुश्त-ए-ख़ाक पे इतरा रहा हूँ मैं

शौक़-ए-विसाल-ए-यार में इक उम्र काट दी

अब बाम ओ दर सजे हैं तो घबरा रहा हूँ मैं

शायद वरक़ है पढ़ लिया कोई हयात का

बन कर फ़क़ीह-ए-शहर जो समझा रहा हूँ मैं

साहिल पे बैठा देख के मौजों का इज़्तिराब

उलझी हुई सी गुत्थियाँ सुलझा रहा हूँ मैं

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