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मुझ को तेरी चाहत ज़िंदा रखती है - ज़ुल्फ़िकार नक़वी कविता - Darsaal

मुझ को तेरी चाहत ज़िंदा रखती है

मुझ को तेरी चाहत ज़िंदा रखती है

और तुझे ये हालत ज़िंदा रखती है

ढो ढो कर हर रोज़ जिसे थक जाता हूँ

उस सामाँ की संगत ज़िंदा रखती है

सूरज ने तेज़ाब है छिड़का शाख़ों पर

गुलशन को क्या रंगत ज़िंदा रखती है

चढ़ते सूरज की मैं पूजा करता हूँ

यार यही इक ख़सलत ज़िंदा रखती है

चूम के हाथों की रेखाएँ सोता हूँ

ख़्वाबों की ये दौलत ज़िंदा रखती है

पल-दो-पल आँगन में तेरे रहता हूँ

एक यही तो फ़ुर्सत ज़िंदा रखती है

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