मिरी ख़ाक में विला का न कोई शरार होता
मिरी ख़ाक में विला का न कोई शरार होता
न ही दिल से आग उठती न ये बे-क़रार होता
मिरे सर पे हाथ रखना जो तिरा शिआ'र होता
मैं न दर-ब-दर भटकता कहीं आर-पार होता
मैं रहीन-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर तू चराग़-ए-शादमानी
तिरी महफ़िल-ए-तरब में कहाँ दिल-फ़िगार होता
तिरी बे-ख़ुदी ने ऐ दिल किसी काम का न छोड़ा
तिरी बात टाल देता तो न ख़ुद पे बार होता
तिरे हुस्न की कहानी मिरी चश्म-ए-तर से निकली
मैं न अश्क-बार होता तो न आश्कार होता
अगर इस पे बैठ जाता कोई मुर्ग़-ए-ना-उमीदी
मिरा नख़्ल-ए-आरज़ू फिर कहाँ साया-दार होता
(1309) Peoples Rate This