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कूज़ा-गर देख अगर चाक पे आना है मुझे - ज़ुल्फ़िकार नक़वी कविता - Darsaal

कूज़ा-गर देख अगर चाक पे आना है मुझे

कूज़ा-गर देख अगर चाक पे आना है मुझे

फिर तिरे हाथ से हर चाक सिलाना है मुझे

बाँध रक्खे हैं मिरे पाँव में घुँगरू किस ने

अपनी सुर-ताल पे अब किस ने नचाना है मुझे

रात-भर देखता आया हूँ चराग़ों का धुआँ

सुब्ह-ए-आशूर से अब आँख मिलाना है मुझे

हाथ उट्ठे न कोई अब के दुआ की ख़ातिर

एक दीवार पस-ए-दार बनाना है मुझे

सर बचे या न बचे तेरे ज़ियाँ-ख़ाने में

अपनी दस्तार बहर-तौर बचाना है मुझे

छोड़ आया हूँ दर-ए-दिल पे मैं आँखें अपनी

अब ज़रा जाए जो कहता था कि जाना है मुझे

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