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ख़ामोश ज़मज़मे हैं मिरा हर्फ़-ए-ज़ार चुप - ज़ुल्फ़िकार नक़वी कविता - Darsaal

ख़ामोश ज़मज़मे हैं मिरा हर्फ़-ए-ज़ार चुप

ख़ामोश ज़मज़मे हैं मिरा हर्फ़-ए-ज़ार चुप

हर इख़्तियार चुप है हर इक ए'तिबार चुप

बाद-ए-सुमूम दरपय आज़ार देख कर

सकते में बे-क़रार है बाद-ए-बहार चुप

मंज़र नहीं हैं बोलते सहरा उदास है

पथरा गई है आँख दिल-ए-दाग़दार चुप

जो कुछ भी हो रहा है ये मक़्सूम तो नहीं

बस तुझ को खा गई है तिरी सोगवार चुप

हर एक को हूँ गोश-बर-आवाज़ देखता

ओढ़े हुए हों जब से मैं इक बा-वक़ार चुप

हर्फ़-ए-दुआ न दस्त-ए-तलब दर पे आन कर

लब पर फ़क़त है रक़्स में इक दिल-फ़िगार चुप

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