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बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की - ज़ुल्फ़िकार नक़वी कविता - Darsaal

बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की

बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की

सदियों जैसे दिन हैं रातें पत्थर की

पथराई सी आँखें चेहरे पत्थर के

हम ने देखीं कितनी शक्लें पत्थर की

गोरे हों या काले सर पर बरसे हैं

परखी हम ने सारी ज़ातें पत्थर की

नीलामी के दर पर बेबस शर्मिंदा

ख़ामोशी में लिपटी आँखें पत्थर की

दिल की धड़कन बढ़ती जाए सुन सुन कर

शीशागर के लब पर बातें पत्थर की

अंदर की आराइश-ए-नाज़ुक क्या होगा

बाहर वज़नी हैं दीवारें पत्थर की

आओ मिल कर उन में ढूँडें आदम-ज़ाद

चलती फिरती जो हैं लाशें पत्थर की

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