ज़िंदगी आज़ार थी आज़ार है तेरे बग़ैर
ज़िंदगी आज़ार थी आज़ार है तेरे बग़ैर
कार-ए-सहल-ए-मर्ग भी दुश्वार है तेरे बग़ैर
यूँ क़दम आ कर रुके जैसे कभी चलते न थे
उम्र-ए-फ़ानी वक़्त-ए-बे-रफ़्तार है तेरे बग़ैर
क्या बताऊँ किस तरह अब कट रही है ज़िंदगी
मेरी हर हर साँस इक तलवार है तेरे बग़ैर
तेरा ग़म था और तुझ ही से बयाँ करता था मैं
कौन सा ग़म क़ाबिल-ए-इज़हार है तेरे बग़ैर
मेरे ग़म की तल्ख़ियों का इस से कुछ अंदाज़ा कर
मुझ को मय-नोशी से भी इंकार है तेरे बग़ैर
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