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गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर - ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी कविता - Darsaal

गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर

गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर

ऐ तेज़-रौ ग़ुबार-ए-सफ़र हूँ ज़रा ठहर

रक़्स-ए-नुमूद यक दो नफ़स और भी सही

दोश-ए-हवा पे मिस्ल-ए-शरर हूँ ज़रा ठहर

अपना ख़िराम तेज़ न कर ऐ नसीम-ए-ज़ीस्त

बुझने को हूँ चराग़-ए-सहर हूँ ज़रा ठहर

वो दिन क़रीब है कि में आँखों को मूँद लूँ

यानी हलाक-ए-ज़ौक़-ए-नज़र हूँ ज़रा ठहर

ऐ दोस्त मेरी तल्ख़-नवाई पे तू न जा

शीरीं मिसाल-ए-ख़्वाब-ए-सहर हूँ ज़रा ठहर

जिस राह से उठा हूँ वहीं बैठ जाऊँगा

मैं कारवाँ की गर्द-ए-सफ़र हूँ ज़रा ठहर

ऐ शहसवार-ए-हुस्न मुझे रौंद कर न जा

वामाँदा मिस्ल-ए-राहगुज़र हूँ ज़रा ठहर

ऐ आफ़्ताब-ए-हुस्न मिरी क्या बिसात है

दरयूज़ा-गर हूँ नूर-ए-क़मर हूँ ज़रा ठहर

मौहूम सी उमीद हूँ मुझ से गुरेज़ क्या

अपनी किसी दुआ का असर हूँ ज़रा ठहर

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