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बसाई मैं ने जो क़ल्ब-ए-हज़ीं में - ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी कविता - Darsaal

बसाई मैं ने जो क़ल्ब-ए-हज़ीं में

बसाई मैं ने जो क़ल्ब-ए-हज़ीं में

वो दुनिया काम आई कार-ए-दीं में

वही है असल में जान-ए-तमन्ना

जो हसरत है निगाह-ए-वापसीं में

तिरे शौक़-ए-सरापा की कशिश है

सिमट आया हूँ मैं अपनी जबीं में

है पेच-ओ-ताब में हर मौज-ए-साहिल

वो बेताबी है मौज-ए-तह-नशीं में

हक़ीक़त है कि हो तुम जान-ए-ख़ूबी

कि ख़ूबी है वतन की सर-ज़मीं में

मोहब्बत है कि वो अक्स-ए-मसर्रत

उतर आया मिरे क़ल्ब-ए-हज़ीं में

जुनूँ के राज में इंसाफ़ होगा

न होगा फ़र्क़ जेब ओ आस्तीं में

बहुत कुछ पाओगे दुनिया में प्यारे

मोहब्बत पाओगे लेकिन हमीं में

'बुख़ारी' की तड़प 'हाफ़िज़' की मस्ती

तुम्हारे नग़मा-ए-वज्द-आफ़रीं में

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