पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी
और ऐसे भटकने में अंजान सी लज़्ज़त थी
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ये दर-ओ-दीवार पर बे-नाम से चुप-चाप साए
हम ने सारे हर्फ़ लिखे तो किस के लिए
ये शोर-ओ-शर तो पहले दिन से आदम-ज़ाद में है
नदी किनारे बैठे रहना अच्छा है
हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं
कुछ गुनह नहीं इस में ए'तिराफ़ ही कर लो
कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को
किस का चेहरा ढूँडा धूप और छाँव में
इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं
वो सानेहा हुआ था कि बस दिल दहल गए!
बे-सबात सुब्ह शाम और मिरा वजूद