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कुछ गुनह नहीं इस में ए'तिराफ़ ही कर लो - ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश कविता - Darsaal

कुछ गुनह नहीं इस में ए'तिराफ़ ही कर लो

कुछ गुनह नहीं इस में ए'तिराफ़ ही कर लो

जो छुपाए फिरते हो सब के रू-ब-रू कह दो

बोझ क्यूँ रहे दिल पर अपनी कम-कलामी का

बुज़दिली भी अच्छी है चाहे तुम ये न मानो

शब जो ख़्वाब देखा था एक दश्त-ए-ख़्वाहिश का

अपना जी कड़ा कर के आज उस से कह डालो

ख़ूब है सज़ा ये भी कस्ब-ए-कामयाबी की

एक शब की क़ीमत में अब तो उम्र-भर जागो

एक बार छू लेना बस गुल-ए-बदन उस का

इक मता-ए-ख़ुशबू है हाथ उम्र-भर चूमो

था तो वो बस इक लम्हा पर ये उस का फैलाओ

चाहे इशरतें उस की सारी ज़िंदगी लिक्खो

ख़्वाब ले के आया हूँ मैं दुकान-ए-दुश्मन पर

इस से बेश-क़ीमत अब और चीज़ क्या बेचो

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