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कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को - ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश कविता - Darsaal

कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को

कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को

खींचता हूँ इस तरह इंकार से इक़रार को

बे-क़रारी कुछ तो हो वजह-ए-तसल्ली के लिए

भींच कर रखता हूँ सीने से फ़िराक़-ए-यार को

अपनी गुस्ताख़ी पे नादिम हूँ मगर क्या ख़ूब है

धूप की दीवार पर लिखना शबीह-ए-यार को

ऐसे कटता है जिगर ऐसे लहू होता है दिल

कैसे कैसे आज़माता हूँ नफ़स की धार को

नाचता है मेरे नब्ज़ों में ख़रोश-ए-ख़ूँ के साथ

धड़कनें गिनती हैं उस के पाँव की रफ़्तार को

रेज़ा रेज़ा चुन रहा हूँ जिस्म-ओ-जाँ की साअ'तें

ढा रहा है कोई मेरी उम्र की दीवार को

एक साअ'त की जुदाई भी नहीं मुझ को क़ुबूल

साथ रखता हूँ सदा याद-ए-फ़िराक-ए-यार को

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