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इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं - ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश कविता - Darsaal

इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं

इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं

जागती आँखों में ख़्वाबों की सलामत चाहते हैं

नक़्श की सूरत लिखी आवाज़ को दे दो रिहाई

बे-तकल्लुम लफ़्ज़ भी अब तो इबारत चाहते हैं

ऐसी यख़-बस्ता ख़मोशी में न फिर ज़िंदा बचेंगे

मेरे ठिठुरे होंट लफ़्ज़ों की हरारत चाहते हैं

मेरे हाथों पर लिखी तहरीर मुझ से कह रही थी

आने वाले वक़्त लफ़्ज़ों की शहादत चाहते हैं

ये दर-ओ-दीवार पर बे-नाम से चुप-चाप साए

फूलों रस्तों और बच्चों की हिफ़ाज़त चाहते हैं

हिज्र के मौसम में याद आती है ख़ुशबू दोस्तों की

हम उदासी में भी यारों की रिफ़ाक़त चाहते हैं

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