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हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं - ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश कविता - Darsaal

हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं

हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं

हवाएँ बारयाबी की इजाज़त चाहती हैं

परिंदों से दर-ओ-दीवार ख़ाली हो गए हैं

मिरी आँखें नगर को ख़ूबसूरत चाहती हैं

लिखे भी जाओ लौह-ए-ख़ाक पर नक़्श-ए-उदासी

कि आती साअतें हर्फ़-ए-शहादत चाहती हैं

दिलों में क़ैद ना-आसूदा सारी इल्तिजाएँ

हिसार-ए-हर्फ़ में आने की मोहलत चाहती हैं

ज़बानों पर लिखी ज़ख़्म-ए-ज़बाँ की लज़्ज़तें अब

दर-ओ-दीवार पर रंग-ए-जराहत चाहती हैं

बहुत से ख़्वाब इन में धुँद बन कर रह गए हैं

ये आँखें इज़्न-ए-गिर्या की सआदत चाहती हैं

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