यूँ उठे इक दिन कि लोगों को हुआ
अब्र का धोका हमारी ख़ाक पर
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जाने हम ये किन गलियों में ख़ाक उड़ा कर आ जाते हैं
हम जाना चाहते थे जिधर भी नहीं गए
वो बूढ़ा इक ख़्वाब है और इक ख़्वाब में आता रहता है
मैं जहाँ था वहीं रह गया माज़रत
अश्क गिरने की सदा आई है
ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं
यूँ जो पलकों को मिला कर नहीं देखा जाता
हमें यूँही न सर-ए-आब-ओ-गिल बनाया जाए
किसी का ख़्वाब किसी का क़यास है दुनिया
मुझ को ये वक़्त वक़्त को मैं खो के ख़ुश हुआ
हुई आग़ाज़ फूलों की कहानी
शुक्र किया है इन पेड़ों ने सब्र की आदत डाली है