बैठे बैठे इसी ग़ुबार के साथ
अब तो उड़ना भी आ गया है मुझे
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सफ़र पे जैसे कोई घर से हो के जाता है
पेड़ों से बात-चीत ज़रा कर रहे हैं हम
मुझ को ये वक़्त वक़्त को मैं खो के ख़ुश हुआ
कभी ख़ुशबू कभी आवाज़ बन जाना पड़ेगा
दश्त-ओ-दरिया की इब्तिदा से हैं
कुछ ख़ाक से है काम कुछ इस ख़ाक-दाँ से है
सो लेने दो अपना अपना काम करो चुप हो जाओ
सुनते हैं जो हम दश्त में पानी की कहानी
सारा बाग़ उलझ जाता है ऐसी बे-तरतीबी से
रवानी में नज़र आता है जो भी
वो बूढ़ा इक ख़्वाब है और इक ख़्वाब में आता रहता है