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ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं - ज़ुल्फ़िक़ार आदिल कविता - Darsaal

ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं

ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं

खिड़की में ज़र्द फूलों का अम्बार और मैं

हर शाम इस ख़याल से होता है जी उदास

पंछी तो जा रहे हैं उफ़ुक़ पार और मैं

इक उम्र अपनी अपनी जगह पर खड़े रहे

इक दूसरे के ख़ौफ़ से दीवार और मैं

सरकार हर दरख़्त से बनते नहीं हैं तख़्त

क़ुर्बान आप पर मिरे औज़ार और मैं

ले कर तो आ गया हूँ मिरे पास जो भी था

अब सोचता हूँ तेरा ख़रीदार और मैं

ख़ुशबू है इक फ़ज़ाओं में फैली हुई जिसे

पहचानते हैं सिर्फ़ सग-ए-यार और मैं

खोए हुओं को ढूँडने निकला था आफ़्ताब

दुनिया तो मिल गई सर-ए-बाज़ार और मैं

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