सारा बाग़ उलझ जाता है ऐसी बे-तरतीबी से

सारा बाग़ उलझ जाता है ऐसी बे-तरतीबी से

मुझ में फैलने लग जाती है ख़ुशबू अपनी मर्ज़ी से

हर मंज़र को मजमा में से यूँ उठ उठ कर देखते हैं

हो सकता है शोहरत पा लें हम अपनी दिलचस्पी से

इन आँखों से दो इक आँसू टपके हों तो याद नहीं

हम ने अपना वक़्त गुज़ारा हर मुमकिन ख़ामोशी से

बर्फ़ जमी है मंज़िल मंज़िल रस्ते आतिश-दान में हैं

बैठा राख कुरेद रहा हूँ मैं अपनी बैसाखी से

ख़्वाबों के ख़ुश-हाल परिंदे सर पर यूँ मंडलाते हैं

दूर से पहचाने जाते हैं हम अपनी बे-ख़्वाबी से

दिल से निकाले जा सकते हैं ख़ौफ़ भी और ख़राबे भी

लेकिन अज़ल अबद को 'आदिल' कौन निकाले बस्ती से

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