कुछ ख़ाक से है काम कुछ इस ख़ाक-दाँ से है

कुछ ख़ाक से है काम कुछ इस ख़ाक-दाँ से है

जाना है दूर और गुज़रना यहाँ से है

दिल अपनी राएगानी से ज़िंदा है अब तलक

आबाद ये जहाँ भी ग़ुबार-ए-जहाँ से है

बस ख़ाक पड़ गई है बदन पर ज़मीन की

वर्ना मुशाबहत तो मिरी आसमाँ से है

दिल भी यही है वक़्त भी मंज़र भी नींद भी

जाना कहाँ है ख़्वाब में जाना कहाँ से है

इक दास्ताँ क़दीम है इक दास्ताँ दराज़

है शाम जिस का नाम वो किस दास्ताँ से है

वाबस्ता मेज़-पोश के फूलों की ज़िंदगी

मेहमान से है मेज़ से है मेज़बाँ से है

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