इक नफ़स नाबूद से बाहर ज़रा रहता हूँ मैं
इक नफ़स नाबूद से बाहर ज़रा रहता हूँ मैं
गुम-शुदा चीज़ों के अंदर लापता रहता हूँ मैं
जितनी बातें याद आती हैं वो लिख लेता हूँ सब
और फिर एक एक कर के भूलता रहता हूँ मैं
गर्म-जोशी ने मुझे झुलसा दिया था एक दिन
अंदरूँ के सर्द-ख़ाने में पड़ा रहता हूँ मैं
ख़र्च कर देता हूँ सब मौजूद अपने हाथ से
और ना-मौजूद की धन में लगा रहता हूँ मैं
जितनी गहराई है 'आदिल' उतनी ही तन्हाई है
बस कि सतह-ए-ज़िंदगी पर तैरता रहता हूँ मैं
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