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तेरा अंदाज़-ए-सुख़न सब से जुदा लगता है - ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद कविता - Darsaal

तेरा अंदाज़-ए-सुख़न सब से जुदा लगता है

तेरा अंदाज़-ए-सुख़न सब से जुदा लगता है

बरबत-ए-दिल पे कोई नग़्मा-सरा लगता है

वो दिया जिस से कि रौशन हो चराग़-ए-हस्ती

ग़ौर से देखें हवाओं में घिरा लगता है

हम हैं आग़ोश-ए-जुनूँ में तो तअ'ज्जुब कैसा

वो भी तो दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा लगता है

गर नहीं जल्वागरी बज़्म-ए-तरब में फिर भी

तेरी ख़ुशबू से वहाँ तेरा पता लगता है

दोनों हाथों से छुपाना तिरे चेहरे का मुझे

सोचता हूँ तो तिरा दस्त-ए-दुआ लगता है

जिस का मिलना भी क़यामत से नहीं कम 'जावेद'

इस का मिलना भी मुझे रोज़-ए-जज़ा लगता है

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