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नाकामी-ए-सद-हसरत-ए-पारीना से डर जाएँ - ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद कविता - Darsaal

नाकामी-ए-सद-हसरत-ए-पारीना से डर जाएँ

नाकामी-ए-सद-हसरत-ए-पारीना के डर जाएँ

कुछ रोज़ तो आराम से अपने भी गुज़र जाएँ

ऐ दिल-ज़दगाँ अब के भी इस फ़स्ल-ए-जुनूँ में

फिर बहर-ए-ख़िरद नोक-ए-सिनाँ कितने ही सर जाएँ

ये रिश्ता-ए-जाँ तार-ए-रग-ए-जान की मानिंद

टूटे जो कभी ख़ाक में हम ख़ाक-बसर जाएँ

है हर्फ़-शनासी किसी आईने की मानिंद

पत्थर कोई पड़ जाए तो सब हर्फ़ बिखर जाएँ

पर्वर्दा-ए-शब को है कहाँ जुरअत-ए-इज़हार

डरते हैं कि शानों से कहीं सर न उतर जाएँ

इस क़र्या-ए-यख़-बस्ता में ऐ शोला-सिफ़त आ

जज़्बात न अज्साम की मानिंद ठिठर जाएँ

ये ख़िर्क़ा-ए-दरवेशी हमें रास है 'जावेद'

दस्तार-ओ-क़बा पहन लें हम लोग तो मर जाएँ

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