वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
मैं ने उस को हम-सफ़र जाना कि तू उस की भी थी
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सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे