वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
मैं ने उस को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
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अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ
इश्क़ में मारके बला के रहे
बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते