तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
चलते हैं फ़क़त चंद क़दम राह के ख़म भी
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बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री
लुट गया है सफ़र में जो कुछ था
छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी