न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है
अजीब दिन हैं सुकूँ है न बे-क़रारी है
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क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए