लुट गया है सफ़र में जो कुछ था
पास अपने मकान तक भी नहीं
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दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों
इश्क़ में मारके बला के रहे
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ