ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
मैं जो मिल जाता तो उस में आबरू उस की भी थी
Wasi Shah
Jaun Eliya
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Gulzar
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Anwar Masood
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1414) Peoples Rate This
बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
इश्क़ में मारके बला के रहे
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते