घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
मेरी रुस्वाई से शोहरत कू-ब-कू उस की भी थी
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दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन