बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
तासीर-ए-दुआ का मुंतज़िर हूँ
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ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ
ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
इश्क़ में मारके बला के रहे