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ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है - ज़ुहूर नज़र कविता - Darsaal

ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है

ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है

ये घना शहर कि जंगल दर-ओ-दीवार का है

रंग फिर आज दिगर बर्ग-ए-दिल-ए-ज़ार का है

शाइबा मुझ को हवा पर तिरी रफ़्तार का है

उस पे तोहमत न धरे मेरे जुनूँ की कोई

मुझ पे तो साया मिरे अपने ही असरार का है

सिर्फ़ ये कहना बहुत है कि वो चुप-चाप सा था

उस को अंदाज़ा मरे शेवा-ए-गुफ़्तार का है

किस ने किस हाल में छोड़ा था वफ़ा का दामन

मसअला ये तो मिरी जाँ बड़ी तकरार का है

रात भर नींद न आने का गिला किस से करूँ

इस में भी हाथ मिरे ताला'-ए-बेदार का है

दर्द की धूप से बचने के तरद्दुद में खुला

सिलसिला ता-बा-उफ़ुक़ ख़ौफ़ के अश्जार का है

रात-दिन खोज में दरिया की सदा रहती है

आदमी कोई तिरे गाँव में उस पार का है

हर घड़ी मोहतसिब-ए-शहर हो मौजूद जहाँ

काम इस बज़्म में क्या मुझ से गुनहगार का है

झूलना दार पे इस अहद में आसाँ है मगर

मरहला सख़्त बहुत जुरअत-ए-इज़हार का है

ज़िंदगी साअत-ए-मौजूद के क़दमों में झुकाओ

फ़ैसला आज यही वक़्त के दरबार का है

किस नए ग़म से चराग़ाँ है नज़र महफ़िल-ए-जाँ

रंग कुछ और ही अब के तिरे अशआ'र का है

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