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सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ - ज़ुहूर नज़र कविता - Darsaal

सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ

सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ

फिर उस की वफ़ा का मुंतज़िर हूँ

इक बार न जिस ने मुड़ के देखा

उस जान-ए-सबा का मुंतज़िर हूँ

बैठा हूँ दुरून-ए-ख़ाना-ए-ग़म

सैलाब-ए-बला का मुंतज़िर हूँ

जान-ए-आब-ए-बक़ा खोज में है

मैं मौज-ए-फ़ना का मुंतज़िर हूँ

खिल जाऊँगा अपने आप से मैं

तहसीन-ए-सबा का मुंतज़िर हूँ

इस दौर में ख़्वाहिश-ए-तरब है

मदफ़न में हवा का मुंतज़िर हूँ

माज़ी की सज़ा भुगत रहा हूँ

फ़र्दा की सज़ा का मुंतज़िर हूँ

शायद कि वहाँ मफ़र हो ग़म से

तसख़ीर-ए-ख़ला का मुंतज़िर हूँ

हाथों में है मेरे दामन-ए-शब

सूरज की सदा का मुंतज़िर हूँ

बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए

तासीर-ए-दुआ का मुंतज़िर हूँ

मेरा तो ख़ुदा कभी नहीं था

मैं किस के ख़ुदा का मुंतज़िर हूँ

कहते हैं जिसे 'नज़र' मुसाफ़िर

उस आबला-पा का मुंतज़िर हूँ

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