इश्क़ में मारके बला के रहे
इश्क़ में मारके बला के रहे
आख़िरश हम शिकस्त खा के रहे
ये अलग बात है कि हारे हम
हश्र इक बार तो उठा के रहे
सफ़र-ए-ग़म की बात जब भी चली
तज़्किरे तेरे नक़्श-ए-पा के रहे
जब भी आई कोई ख़ुशी की घड़ी
दिन ग़मों के भी याद आ के रहे
जिस में सारा ही शहर दफ़्न हुआ
फ़ैसले सब अटल हवा के रहे
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
हम उन्हें आईना दिखा के रहे
होंट तक सी दिए थे फिर भी 'नज़र'
ज़ुल्म की दास्ताँ सुना के रहे
(1593) Peoples Rate This