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इश्क़ में मारके बला के रहे - ज़ुहूर नज़र कविता - Darsaal

इश्क़ में मारके बला के रहे

इश्क़ में मारके बला के रहे

आख़िरश हम शिकस्त खा के रहे

ये अलग बात है कि हारे हम

हश्र इक बार तो उठा के रहे

सफ़र-ए-ग़म की बात जब भी चली

तज़्किरे तेरे नक़्श-ए-पा के रहे

जब भी आई कोई ख़ुशी की घड़ी

दिन ग़मों के भी याद आ के रहे

जिस में सारा ही शहर दफ़्न हुआ

फ़ैसले सब अटल हवा के रहे

अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन

हम उन्हें आईना दिखा के रहे

होंट तक सी दिए थे फिर भी 'नज़र'

ज़ुल्म की दास्ताँ सुना के रहे

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