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हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते - ज़ुहूर नज़र कविता - Darsaal

हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते

हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते

मैं सोचता हूँ कि वो मुझ से प्यार क्यूँ करते

न मेरी राह में तारे न मेरे पास चराग़

वो मेरे साथ सफ़र इख़्तियार क्यूँ करते

निगाह सिर्फ़ बुलावा नहीं कुछ और भी है

ये जानते तो तिरा ए'तिबार क्यूँ करते

ग़म-ए-हयात में होता अगर न हाथ तिरा

तो हम ख़िरद में जुनूँ को शुमार क्यूँ करते

कोई तो बात है वर्ना जफ़ाओं के मारे

तुझे भुला के तिरा इंतिज़ार क्यूँ करते

'नज़र' चमन में अगर वाक़ई बहार आती

तो फूल ख़्वाहिश-ए-अब्र-ए-बहार क्यूँ करते

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