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हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री - ज़ुहूर नज़र कविता - Darsaal

हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री

हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री

बस यही ग़नीमत है तेरे बाद शब गुज़री

कुंज-ए-ग़म में इक गुल भी लिख नहीं सका पूरा

इस बला की तेज़ी से सरसर-ए-तरब गुज़री

तेरे ग़म की ख़ुश्बू से जिस्म ओ जाँ महक उट्ठे

साँस की हवा जब भी छू के मेरे लब गुज़री

एक साथ रह कर भी दूर ही रहे हम तुम

धूप और छाँव की दोस्ती अजब गुज़री

जाने क्या हुआ हम को अब के फ़स्ल-ए-गुल में भी

बर्ग-ए-दिल नहीं लरज़ा तेरी याद जब गुज़री

बे-क़रार बे-कल है जाँ सुकूँ के सहरा में

आज तक न देखी थी ये घड़ी जो अब गुज़री

बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन

वक़्त बे-तरह बीता उम्र बे-सबब गुज़री

किस तरह तराशोगे तोहमत-ए-हवस हम पर

ज़िंदगी हमारी तो सारी बे-तलब गुज़री

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