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दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें - ज़ुहूर नज़र कविता - Darsaal

दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें

दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें

हम तो सुलगते ही रहते हैं क्यूँ सुलगाएँ तुम्हें

तर्क-ए-मोहब्बत तर्क-ए-तमन्ना कर चुकने के बाद

हम पे ये मुश्किल आन पड़ी है कैसे भुलाएँ तुम्हें

दिल के ज़ख़्म का रंग तो शायद आँखों में भर आए

रूह के ज़ख़्मों की गहराई कैसे दिखाएँ तुम्हें

दर्द हमारी महरूमी का तुम तब जानोगे

जब खाने आएगी चुप की साएँ साएँ तुम्हें

सन्नाटा जब तन्हाई के ज़हर में बुझता है

वो घड़ियाँ क्यूँकर कटती हैं कैसे बताएँ तुम्हें

जिन बातों ने प्यार तुम्हारा नफ़रत में बदला

डर लगता है वो बातें भी भूल न जाएँ तुम्हें

रंग-बिरंगे गीत तुम्हारे हिज्र में हाथ आए

फिर भी ये कैसे चाहें कि सारी उम्र न पाएँ तुम्हें

उड़ते पंछी ढलते साए जाते पल और हम

बैरन शाम का दामन थाम के रोज़ बुलाएँ तुम्हें

दूर गगन पर हँसने वाले निर्मल कोमल चाँद

बे-कल मन कहता है आओ हाथ लगाएँ तुम्हें

पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो

चाहो तो हम फिर कुछ दूरी पर छोड़ आएँ तुम्हें

अनहोनी की चिंता होनी का अन्याय 'नज़र'

दोनों बैरी हैं जीवन के हम समझाएँ तुम्हें

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