छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
किस क़दर गुंजान जंगल था रहा कुछ भी नहीं
ख़ाक-ए-पा-ए-याद तक गीली हवा ने चाट ली
इश्क़ की ग़र्क़ाब बस्ती में बचा कुछ भी नहीं
हाल के ज़िंदाँ से बाहर कुछ नहीं जुज़ रूद-ए-मर्ग
और इस ज़िंदाँ में जुज़ ज़ंजीर-ए-पा कुछ भी नहीं
हिज्र के काले समुंदर का नहीं साहिल कोई
मौजा-ए-तूफ़ान-ए-दहशत से वरा कुछ भी नहीं
आबनाए-दर्द के दोनों तरफ़ है दश्त-ए-ख़ौफ़
अब तो चारा जान देने के सिवा कुछ भी नहीं
हाथ मेरा ऐ मिरी परछाईं तू ही थाम ले
एक मुद्दत से मुझे तो सूझता कुछ भी नहीं
शहर-ए-शब में कौन सा घर था न दी जिस पर सदा
नींद के अंधे मुसाफ़िर को मिला कुछ भी नहीं
रात भर इक चाप सी फिरती रही चारों तरफ़
जान-लेवा ख़ौफ़ था लेकिन हुआ कुछ भी नहीं
कासा-ए-जाँ हाथ में ले कर गए थे हम वहाँ
लाए उस दर से ब-जुज़ ख़ून-ए-सदा कुछ भी नहीं
उम्र भर उम्र-ए-गुरेज़ाँ से न मेरी बन सकी
जो करे करती रहे मैं पूछता कुछ भी नहीं
वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
मैं ने उस को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
दौलत-ए-तन्हाई भी आने से तेरे छिन गई
अब तो मेरे पास ऐ जान-ए-वफ़ा कुछ भी नहीं
दिल पे लाखों लफ़्ज़ कंदा कर गई उस की नज़र
और कहने को अभी उस ने कहा कुछ भी नहीं
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