अपनों के ज़ख़्म खा के मैं निकला जो शहर से
जो अजनबी मिला वही अपना लगा मुझे
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दिल में रक्खा था शरार-ए-ग़म को आँसू जान के
बादा-कश हूँ न पारसा हूँ मैं
जीने की है उमीद न मरने की आस है
फूल का खिलना बहुत दुश्वार है
मिरी ज़ात का हयूला तिरी ज़ात की इकाई
शाम-ए-ग़म याद नहीं सुब्ह-ए-तरब याद नहीं