जबीं से नाख़ुन-ए-पा तक दिखाई क्यूँ नहीं देता

जबीं से नाख़ुन-ए-पा तक दिखाई क्यूँ नहीं देता

वो आईना है तो अपनी सफ़ाई क्यूँ नहीं देता

दिखाई दे रहे हैं सामने वालों के हिलते लब

मगर वो कह रहे हैं क्या सुनाई क्यूँ नहीं देता

समुंदर भी तिरी आँखों में सहरा की तरह गुम है

यहाँ वो तंगी-ए-जा की दुहाई क्यूँ नहीं देता

जब उस ने तोड़ दी ज़ंजीर दीवारें गिरा दी हैं

असीरी के तसव्वुर से रिहाई क्यूँ नहीं देता

वो ख़ुद से बख़्श देता है जहान-ए-आब-ओ-गिल मुझ को

तलब के बावजूद आख़िर गदाई क्यूँ नहीं देता

अब आँखों से नहीं हाथों से छूना चाहता हूँ

मुझे वो वस्ल-आमेज़ा जुदाई क्यूँ नहीं देता

'ज़ुबैर' इक बार उँगली भी नहीं छूने को मिलती है

वो अपने हश्त-पहलू में रसाई क्यूँ नहीं देता

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