सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ
अजब नहीं कि करें याद माह ओ साल मुझे
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कुछ दिनों इस शहर में हम लोग आवारा फिरें
ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे
जला है दिल या कोई घर ये देखना लोगो
अपनी पहचान के सब रंग मिटा दो न कहीं
सम्तों का ज़वाल
अजीब लोग थे ख़ामोश रह के जीते थे
अमीर-ए-शहर की नेकी
हम ने पाई है उन अशआर पे भी दाद 'ज़ुबैर'
दूसरा आदमी
धुआँ सिगरेट का बोतल का नशा सब दुश्मन-ए-जाँ हैं
कहाँ पे टूटा था रब्त-ए-कलाम याद नहीं
था हर्फ़-ए-शौक़ सैद हुआ कौन ले गया