मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर-ए-शब तक तो ले आया
तुम इस का ख़ूबसूरत सा कोई अंजाम लिख देना
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गुलाबों के होंटों पे लब रख रहा हूँ
कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई
मुसालहत
फिर दिल को रोज़ ओ शब की वही ईद चाहिए
हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे
औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
सफ़ा और सिद्क़ के बेटे
वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
है धूप कभी साया शोला है कभी शबनम
तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
क़सीदे ले के सारे शौकत-ए-दरबार तक आए
सितमगरी भी मिरी कुश्तगाँ भी मेरे थे