जो न इक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें
ऐसी मग़रूर तमन्नाओं का पीछा न करो
Parveen Shakir
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तुम जहाँ अपनी मसाफ़त के निशाँ छोड़ गए
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
कुछ दिनों इस शहर में हम लोग आवारा फिरें
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
बरसों में तुझे देखा तो एहसास हुआ है
ज़िंदगी जिन की रिफ़ाक़त पे बहुत नाज़ाँ थी
मनकूहा
हमारी गर्दिश-ए-पा रास्तों के काम आई
हम ने पाई है उन अशआर पे भी दाद 'ज़ुबैर'
रद्द-ए-अमल
गुलाबों के होंटों पे लब रख रहा हूँ
तब्दीली