जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तन्हा
मुझ में उन टूटते पत्तों की झलक है कितनी
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कहाँ पे टूटा था रब्त-ए-कलाम याद नहीं
दिल के तातार में यादों के अब आहू भी नहीं
ग़ज़ब की धार थी इक साएबाँ साबित न रह पाया
कभी ख़िरद से कभी दिल से दोस्ती कर ली
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
कुत्तों का नौहा
मिलन मौसमों की सज़ा चाहता हूँ
भूली-बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी
औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
दूर तक कोई न आया उन रुतों को छोड़ने
गुलाबों के होंटों पे लब रख रहा हूँ
हाए ये अपनी सादा-मिज़ाजी एटम के इस दौर में भी