हम ने पाई है उन अशआर पे भी दाद 'ज़ुबैर'
जिन में उस शोख़ की तारीफ़ के पहलू भी नहीं
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वो आ गया तो सारा परी-ख़ाना जी उठा
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
मा-बा'द जदीद
मनकूहा
सियाह पट्टी
हम कहाँ आ गए
मुसालहत
कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा
शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'
मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर-ए-शब तक तो ले आया
वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए
बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो