हाए ये अपनी सादा-मिज़ाजी एटम के इस दौर में भी
अगले वक़्तों की सी शराफ़त ढूँड रही है शहरों में
Mohsin Naqvi
Gulzar
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ये लम्हा लम्हा तकल्लुफ़ के टूटते रिश्ते
दिल के तातार में यादों के अब आहू भी नहीं
ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
हम कहाँ आ गए
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
इक तेरे सिवा
तुम जहाँ अपनी मसाफ़त के निशाँ छोड़ गए
इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर
है धूप कभी साया शोला है कभी शबनम
सफ़ा और सिद्क़ के बेटे
अलिफ़ ज़बर अ
बे-कराँ