भटक जाती हैं तुम से दूर चेहरों के तआक़ुब में
जो तुम चाहो मिरी आँखों पे अपनी उँगलियाँ रख दो
Habib Jalib
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शौक़ उर्यां है बहुत जिन के शबिस्तानों में
हाए ये अपनी सादा-मिज़ाजी एटम के इस दौर में भी
कभी ख़िरद से कभी दिल से दोस्ती कर ली
हर क़दम सैल-ए-हवादिस से बचाया है मुझे
नज़र न आए तो सौ वहम दिल में आते हैं
तुम अपने चाँद तारे कहकशाँ चाहे जिसे देना
फिर दिल को रोज़ ओ शब की वही ईद चाहिए
अपने घर के दर-ओ-दीवार को ऊँचा न करो
सम्तों का ज़वाल
शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है
नए घरों में न रौज़न थे और न मेहराबें
अकेले होने का ख़ौफ़