औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
ज़ाहिदों ने जब देखा साहिलों का ये मंज़र लिख दिया गुनाहों में
Anwar Masood
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भूली-बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी
अकेले होने का ख़ौफ़
क़सीदे ले के सारे शौकत-ए-दरबार तक आए
इक तेरे सिवा
कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई
ऐसा क्यूँ होता है
हम ने पाई है उन अशआर पे भी दाद 'ज़ुबैर'
वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
नज़र न आए तो सौ वहम दिल में आते हैं
अपनी पहचान के सब रंग मिटा दो न कहीं
अंजाम क़िस्सा-गो का