अपनी ज़ात के सारे ख़ुफ़िया रस्ते उस पर खोल दिए
जाने किस आलम में उस ने हाल हमारा पूछा था
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अंजाम क़िस्सा-गो का
शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'
मा-बा'द जदीद
भटक जाती हैं तुम से दूर चेहरों के तआक़ुब में
शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है
कहाँ पे टूटा था रब्त-ए-कलाम याद नहीं
कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई
जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तन्हा
बे-कराँ
वो आ गया तो सारा परी-ख़ाना जी उठा
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे